आजमगढ़: दो यादवों की भिड़ंत, सियासी संघर्ष और दलित मतदाताओं की भूमिका।

Azamgarh | Roglance News

आजमगढ़, एक ऐसा क्षेत्र जहां की राजनीति हमेशा से ही तीव्र और चुनौतीपूर्ण रही है, इस बार भी सियासी पारा चरम पर है। समाजवादी पार्टी (सपा) हर हाल में इस सीट पर काबिज होना चाहती है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उपचुनाव में मिली जीत को बरकरार रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। नाक की लड़ाई बन चुकी इस सीट पर दो यादवों की भिड़ंत में सबकी नजर दलित मतदाताओं के रुख पर है। इस किलेबंदी के बीच, आइए एक नजर डालते हैं आजमगढ़ की सियासी पृष्ठभूमि और वर्तमान परिदृश्य पर।

✲  आजमगढ़ का सियासी फ्लैशबैक व वर्तमान

1984 तक आजमगढ़ में कांग्रेस का दबदबा रहा, लेकिन मंडल-कमंडल की सियासत शुरू होने के बाद कांग्रेस की वापसी नहीं हो सकी। 1989 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने यहां जीत दर्ज कर सियासी मिजाज को पूरी तरह बदल दिया। 1991 के चुनाव में जनता दल की जीत को अगर छोड़ दिया जाए, तो 1996 से 2004 तक के चार चुनावों में बसपा और सपा ही बारी-बारी से जीतते रहे। 2009 में भाजपा ने इस क्रम को तोड़ा और आजमगढ़ की सियासत में एक नया मोड़ आया।


■ 2014 में मुलायम सिंह यादव ने सीट को फिर से सपा की झोली में डाल दी। पर, सबसे बड़ी लकीर खींची अखिलेश यादव ने। 2019 में 60.4 फीसदी के बड़े वोट शेयर के साथ उन्होंने जीत दर्ज की। हालांकि उनके सीट खाली करने के बाद सपा अपना करिश्मा नहीं दोहरा पाई। दिनेश यादव निरहुआ ने सपा से उतरे धर्मेंद्र यादव को शिकस्त देकर भगवा परचम फहरा दिया। उपचुनाव में गुड्डू जमाली की दावेदारी ने धर्मेंद्र की हार की पटकथा लिख दी थी।

■ धर्मेंद्र यादव और निरहुआ फिर से मैदान में हैं। सैफई परिवार के लिए यह सीट साख का सवाल है। वहीं, निरहुआ मोदी-योगी के सहारे नजर आ रहे हैं। बसपा ने करीब 20 फीसदी मुस्लिम आबादी को देखते हुए मशहूद अहमद को मैदान में उतारकर मुकाबले को रोमांचक बना दिया है।

आजमगढ़ की मौजूदा स्थिति में सपा और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला है। सपा, जो यादव और मुस्लिम मतदाताओं पर अपना प्रमुख आधार मानती है, इस बार हर हाल में जीतने के लिए रणनीति बना रही है। दूसरी तरफ, भाजपा भी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरी है। भाजपा को पिछले उपचुनाव में मिली जीत को देखते हुए, इस बार भी अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।

✲  युवाओं के लिए बेरोजगारी मुद्दा

पार्क में साथियों संग सेल्फी ले रही विनीता यादव बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा मानती हैं। सुष्मिता विश्वकर्मा व आशा का कहना है कि बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। रही बात आजमगढ़ की तो यहां अखिलेश और निरहुआ दोनों ने विकास कार्य कराए हैं। वहीं हरिहरपुर गांव के रहने वाले आशुतोष कहते हैं कि बेरोजगारी और पेपर लीक जैसे मुद्दे ऊपरी तौर पर हैं। ये फिलहाल वोट में तब्दील नहीं हो रहे। वह निरहुआ की जीत को लेकर आश्वस्त हैं।


इस चुनाव में दलित मतदाता निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। यादव और मुस्लिम मतदाताओं के बीच बंटे हुए क्षेत्र में दलितों का रुख चुनाव के परिणाम को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। सपा और बसपा की राजनीति में दलित मतदाता हमेशा से एक महत्वपूर्ण घटक रहे हैं। इस बार भी, दलितों का समर्थन पाने के लिए दोनों पार्टियों के बीच कड़ी टक्कर है।

✲  पक्ष-विपक्ष में मतदाताओं की खूब दलीलें

चुनावी चर्चा छिड़ते ही संगीत महाविद्यालय के छात्र शिवम मिश्रा कहते हैं, हते हैं, धर्मेंद्र यादव का पलड़ा भारी लग रहा है। पर, उनके साथ बैठे विवेक चौहान निरहुआ के पक्ष में दलील देते हैं। वह कहते हैं, बिना शोर-शराबा किए निरहुआ ने कई बड़े काम किए हैं। पं. छन्नू लाल मिश्रा के हरिहरपुर गांव की रंगत ही बदल कर रख दी। सरकार ने गांव में स्कूल, कॉलेज पर खूब खर्च किया।

सपा और बसपा के बीच का संघर्ष हमेशा से ही दिलचस्प रहा है। सपा ने यादव-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे अपनी राजनीति को मजबूत किया है, जबकि बसपा ने दलित मतदाताओं के सहारे अपनी जमीन तैयार की है। 1996 से 2004 तक सपा और बसपा के बीच की बारी-बारी की जीत इस बात का प्रमाण है कि आजमगढ़ की राजनीति में ये दोनों पार्टियाँ कितना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

■ पार्क में घूम रहे रविशंकर श्रीवास्तव इन दलीलों से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, आजमगढ़ में कांटे की टक्कर होगी। यादव बहुल सीट होने और गुड्डू जमाली के सपा में आने की वजह से धर्मेंद्र यादव के मजबूत होने के सवाल पर वह कहते हैं, यह सब सपा में अंदरूनी कलह की वजह भी बन चुका है। निरहुआ भी तो यादव हैं। भाजपा ने विकास किया है, जिसका फायदा मिलेगा।

भाजपा ने आजमगढ़ में अपनी पकड़ बनाने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाई हैं। जातिगत समीकरणों के अलावा, विकास और हिंदुत्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जा रही है। उपचुनाव में मिली जीत के बाद, भाजपा की नजर आगामी चुनाव में भी इस सीट पर कब्जा बरकरार रखने पर है।

आजमगढ़ की हॉट सीट पर सियासी पारा चढ़ा हुआ है। सपा और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला है, और दलित मतदाताओं का रुख इस बार चुनाव परिणाम को निर्णायक बना सकता है। पिछले चुनावों के फ्लैशबैक और वर्तमान सियासी स्थिति को देखते हुए, यह साफ है कि आजमगढ़ की राजनीति में हर चुनाव एक नया मोड़ ले आता है। इस बार भी, यह देखना दिलचस्प होगा कि किस पार्टी को जीत मिलती है और किसकी रणनीति सफल होती है।